कल, बेहतर जिंदगी की तलाश में,
सात समंदर पार अपनों से दूर,
खुद को भूल कर,
अपनी हड्डी – हड्डी तोड़ कर
कुछ कमाया था।
आज अपनों के बीच,
फिर भागा चला आया हूं।
कुछ भी लाया नहीं,
ना अपनों के लिए
ना दोस्तों के लिए।
बदला बदला सा है सब कुछ,
मैं भी डरा सहमा सा!
घर की चारदीवारी में,
कैद कर रखा हूं खुद को,
सांस तक लेने में डर लगता है।
इस बार तो मैंने ना किसी को बताया,
ना कोई पूछने ही आया,
कब आए हो!
क्या लाए हो?
सब सोचते हैं मैं वो लेकर आया हूं।
मेरे आने पर जो कभी खुश होते थे!
आज मुझे देखते ही गुम से हो जाते हैं,
यदि कोई मिलता भी है तो पूछता है,
सर्दी, खांसी, बुखार….
तुमको नहीं है ना मेरे यार?
नहीं तो सारा मुहल्ला तुम्हारे कारण,
हो जाएगा बीमार
कभी सोचा भी नहीं था
जिंदगी बचाने की जद्दोजहद ऐसी होगी
एक अंजाना सा डर चारों तरफ,
और घूरती खामोश नजरें होंगी!
बेचैन बेकरार इंतजार में मेरे खबर बनने की।
जॉय डेविड, जमानिया