कोबिड-19 के खौफ ने सारी दुनिया को जकड़ रखा है। लगभग 1 महीने से लॉक-डाउन का दौर चल रहा है। इसके बीच मैंने एल्डस हक्सले के उपन्यास “ब्रेव न्यू वर्ल्ड” को पढ़ा। इसकी चर्चा तो मैंने “जॉर्ज ऑरवेल” के उपन्यास “नाइनटीन ऐट्टीफोर” के छपने के बाद बहुत सुनी थी, पर पढ़ने का अवसर अब मिला। ज्यादातर चर्चाओं में इसकी भविष्य दृष्टि को “नाइनटीन ऐट्टीफोर” के मुकाबले ज्यादा खौफनाक, ज्यादा भयावह माना गया। आतंक और अत्याचार से भरी दुनिया के बारे में लिखा गया यह उपन्यास “ग्रेट डिप्रेशन” की पराकाष्ठा के दौर 1932 में प्रकाशित हुआ था। इसमें हर व्यक्ति हर दिन, मानसिक रोगों से संबंधित “सोमा” ब्रांड की दवा की एक खुराक लेता है। यह लोगों की उत्पादन-क्षमता और दक्षता को प्रभावित किए बिना ही उन्हें खुश रखती है, सुखी बना देती है। क्योंकि सुख ही सबसे बड़ा मूल्य है, इसलिए अब पुलिस और मतपत्र की कोई आवश्यकता ही नहीं रह जाती। समूचे भूमंडल पर एकमात्र शासन करने वाले “वर्ल्ड स्टेट” को युद्धो, क्रांतियों, हड़तालों या प्रदर्शनों का कभी कोई भय नहीं सताता, क्योंकि सभी लोग अपनी वर्तमान परिस्थितियों से, चाहे वे कैसी भी क्यों ना हो, पूर्णतया संतुष्ट हैं।
अब यह समझ पाना कठिन है कि जब हर कोई हर समय सुखी है तो इसमें गलत क्या है? आमतौर से सुख की मान्य परिभाषा है- “व्यक्तिनिष्ठ खुशहाली” (Subjective well-being)। इस दृष्टिकोण के अनुसार सुख वह चीज है जिसे मैं अपने भीतर महसूस करता हूं। हमारे सुख पर सामाजिक नैतिक और आध्यात्मिक कारक उतना ही प्रभाव डालते हैं, जितना कि भौतिक परिस्थितियां। सवाल उठता है कि इस व्यक्तिनिश्ठ खुशहाली को मापा कैसे जाए?
पैसा खुशहाली लाता तो है लेकिन सिर्फ एक सीमा तक। यहां अर्थशास्त्र के मूल सिद्धांतों में से एक- “डिमिनिशिंग मार्जिनल यूटिलिटी”- लागू होता है। ज्यों-ज्यों व्यक्ति का पेट भरता जाता है रोटी की सीमांत उपयोगिता उसके लिए कम होती जाती है। जो लोग ज्यादा गरीब हैं, उनके लिए ज्यादा पैसे का महत्व ज्यादा सुख है। लेकिन ज्यों-ज्यों पैसा आने लगेगा जल्दी ही सब कुछ सामान्य लगने लगेगा।
यदि हम पूरे विश्व को भौतिक उपलब्धियों की दृष्टि से देखें तो अंतरराष्ट्रीय अहिंसा में पिछले किसी भी समय की अपेक्षा कमी आई है। युद्ध अब मानक नहीं रह गए हैं। किन्तु वास्तविक शांति युद्ध का न होना नहीं है। वास्तविक शांति युद्ध का ऐसा विरोधाभास है, जिस पर विश्वास करना कठिन है। इसमें पहला- और अग्रणी कारक यह है कि युद्ध की कीमत असाधारण रूप से बढ़ गई है। दूसरे उससे होने वाले मुनाफे में भी गिरावट आई है। जब युद्ध से मुनाफा कम होने लगता है तो शांति किसी भी वक्त के मुकाबले ज्यादा फायदेमंद हो जाती है। आधुनिक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में विदेशी व्यापार और निवेश बेहद महत्वपूर्ण हो उठे हैं। इसलिए शांति अनूठे लाभ पहुंचाती है।
अंतिम लेकिन उतनी ही महत्वपूर्ण बात यह है कि वैश्विक राजनीतिक संस्कृति की अंदरूनी संरचना में बदलाव आया है। हमारा समय इतिहास में पहला ऐसा समय है, जब दुनिया उन शांति प्रेमी राजनेताओं, कारोबारियों, बुद्धिजीवियों के प्रभाव में है जो युद्ध को एक गंभीर और टालने योग्य बुराई के रूप में देखते हैं।
इन सभी कारकों के बीच जैसा कि युवाल नोवा हरारी “सेपियंस” में कहते हैं, की क्रिया-प्रतिक्रिया का एक सकारात्मक वृत्त बनता है। परमाणु विभीषिका का खतरा शांतिप्रियता को प्रोत्साहित करता है; जब शांतिप्रियता की भावना का प्रसार होता है, तो प्रत्यक्ष युद्ध पीछे हटता है और कारोबार फलता-फूलता है। कारोबार शांति के मुनाफे और युद्ध की कीमत, दोनों मे वृद्धि करता है। समय बीतने के साथ क्रिया-प्रतिक्रिया का यह वृत्त युद्ध के समक्ष एक और बाधा खड़ी करता है, जो अंततः सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है। अंतर्राष्ट्रीय रिश्तो का कसता हुआ जाल ज्यादातर देशों की स्वाधीनता को कमजोर करता हुआ इस बात के अवसर कम कर देता है कि उनमें से कोई भी देश अकेले दम पर युद्ध को भड़क जाने की गुंजाइश दे सकें। हम भूमंडलीय साम्राज्य की उत्पत्ति के साक्षी बन रहे हैं। पिछले दो वर्षों में इसकी आहट स्पष्ट सुनाई देने लगी है। तो क्या हमें हक्सले के “वर्ल्ड-स्टेट” का नागरिक बन जाना होगा?
आज कोबिड-19 ने हमें एक साथ स्वर्ग और नर्क दोनों की दहलीज पर ला खड़ा किया है। और हम घबराए हुए से एक के प्रवेश द्वार और दूसरे के गलियारे के बीच आवाजाही कर रहे हैं। इतिहास ने अभी भी यह फैसला नहीं किया है कि अंततः हम कहां जाएंगे और संयोगों की एक श्रृंखला हमें किसी भी दिशा की ओर लुढ़का सकती है।
लेकिन क्या हम पहले के मुकाबले सुखी हैं? इससे उपजे सवालों को ही उठाने से इतिहासकार बचते रहे हैं -इनका जवाब देना तो दूर की बात है। तब भी लगभग हर व्यक्ति के मन में इसे लेकर एक पूर्वाग्रह विद्यमान है।
परिवार और समुदाय हमारे सुख पर पैसे से कहीं ज्यादा प्रभाव डालते हैं। विवाह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। अच्छे विवाहों और उच्च स्तरीय व्यक्तिनिष्ठ खुशहाली के बीच तथा बुरे विवाहों और दुख के बीच बहुत करीबी आपसी संबंध होता है। इस वास्तविकता पर आर्थिक, यहां तक कि शारीरिक परिस्थितियों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। प्यार करने वाले जीवनसाथी, अनुरागी परिवार और स्नेही समुदाय से घिरा एक निर्धन व्यक्ति किसी अलगाव ग्रस्त अरबपति के मुकाबले कहीं बेहतर महसूस कर सकता है। लगता है कि जिस स्वतंत्रता को हम इतना महत्व देते हैं, वह मुमकिन है हमारे खिलाफ जाती हो । इस तरह तो हम उधड़ते हुए समुदायों और परिवारों की उत्तरोत्तर अकेली होती जा रही दुनिया में रह रहे हैं।
लगता है सुख वास्तव में वस्तुनिष्ठ परिस्थितियों और व्यक्तिनिश्ठ अपेक्षाओं के पारंपरिक संबंध पर निर्भर करता है। हम बड़ी आसानी से उपदेशात्मक लहजे में कह सकते हैं कि जो कुछ आपके पास पहले से है, उससे संतुष्ट होना कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, बजाए इसके जो आप चाहते हैं, उसे हासिल करने के।
सुख अगर संपत्ति, आरोग्य और सामाजिक संबंधों पर निर्भर करता होता तो उसकी पड़ताल करना अपेक्षाकृत आसान होता। लेकिन यह निष्कर्ष कि वह व्यक्तिनिष्ठ उम्मीदों पर निर्भर करता है, मुश्किलें खड़ी कर देता है। समस्या उस भ्रांत तर्क की है, जो हमारी मानसिकता में गहरा बैठा हुआ है। जब हम इस बात की कल्पना या अनुमान करने की कोशिश करते हैं कि आज दूसरे लोग कितने सुखी हैं तो हम अपरिहार्य रूप से खुद को उनकी जगह पर रखकर देखते हैं। लेकिन यह ढंग कारगर नहीं है, क्योंकि यह हमारी अपेक्षाओं को दूसरे लोगों की भौतिक परिस्थितियों से संलग्न कर देता है।
अगर सुख अपेक्षाओं से निर्धारित होता है, तब तो – जनसंचार माध्यम और विज्ञापन उद्योग- हमारे सारे संतोष को ही समाप्त कर देने में लग गए हैं। इसलिए संभव है कि असंतोष को भड़काने वाली चीजों में केवल गरीबी, बीमारी, भ्रष्टाचार और सामाजिक-राजनीतिक दमन ही नहीं, बल्कि अमीरों की दुनिया के मापदण्डों से महज उनका सामना होना भी शामिल हो।
इस संबंध में मैंने जीव विज्ञानियों के विचार जानने का भी प्रयास किया। इसके लिए मुझे विकिपीडिया की मदद लेनी पड़ी। उनका मानना है कि हमारी मानसिक और भावनात्मक दुनिया स्नायुओं, तांत्रिक कोशिकाओं, सीनेप्सों और बहुतेरे जीवरासायनिक पदार्थों, जैसे कि सेरोटोनिन, डोपामाइन और ऑक्सीटोसिन से निर्धारित होती है। लोग एक और सिर्फ एक चीज से सुखी होते हैं- शरीर की सुखद अनुभूतियों से। व्यक्ति वास्तव में उसके रक्त प्रवाह के माध्यम से खुशी से उन्मत्त हो रहे विभिन्न हारमोनों और उसके मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों के बीच कौंध रहे विद्युत संकेतों के हंगामे पर प्रतिक्रिया कर रहा होता है।
सुख और दुख विकास प्रक्रिया में इसी हद तक भूमिका निभाते हैं कि वे सर्वाइवल और फर्टिलिटी को प्रोत्साहित या हतोत्साहित करते हैं। विकास-प्रक्रिया ने हमें ना तो बहुत सुखी होने के लिए ढाला है और ना तो बहुत दुखी होने के लिए। यह हमें सुखद अनुभूतियों के क्षणिक प्रवाह का आनंद लेने में सक्षम बनाती है, लेकिन ये अनुभूतियां कभी भी हमेशा के लिए नहीं बनी रहतीं। आगे-पीछे वे शान्त हो जाती हैं और उनकी जगह अप्रिय अनुभूतियाँ ले लेती हैं। हम अंततः समझने लगे हैं कि सुख का सारा दारोमदार जैव रासायनिक प्रणाली के हाथों में है।
हक्सले की विचलित कर देने वाली दुनिया इस हाइपोथिसिस पर आधारित है कि सुख (हैप्पीनेस) आनंद (प्लेजर) के बराबर होता है। मैं इस विचार से सहमत नहीं हूं। हैप्पीनेस उस स्थिति की व्याख्या नहीं करता जिसमें कहा जा सके कि मनुष्य आनंदित है। आनंदित होने के विकास क्रम को समझना होगा। भौतिक आवश्यकताएं पूरी होने पर व्यक्ति का संतुष्ट होना इस विकास मार्ग का पहला कदम है। कितनी संपदा और संसाधन जीवन के लिए पर्याप्त हैं? संतुष्ट होने पर मनुष्य प्रसन्न होने की स्थिति में आ सकता है। वह जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं को सहजता से पूरा कर मन में खुशी महसूस करता है। संतुष्टि और प्रसन्नता का वातावरण बनने से मनुष्य को सुखी होने की अनुभूति हो सकती है। इस विकास की यात्रा का अंतिम पड़ाव है आनंदित होने का। इस बीच में अन्य कई पड़ाव आ सकते हैं।
एक महत्वपूर्ण घटक है राहत का भ्रम। मेरी दृष्टि में यह भ्रम राहत या सुख से बड़ा होता है। इसी मानव प्रकृति के चलते बहुआयामी सुखों के स्वप्नलोक में पहुंचा देने वाले बहुत से राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक मज़हब पनपते रहे हैं। कौन कितना फल-फूल सका, यह नेतृत्वकर्ता की कुशलता पर निर्भर करता है। अनुयायियों ने मानवीय संवेदना और उससे उपजी उत्तेजना से परे हटकर, इन दिखाए गए सपनों का तार्किक विश्लेषण या आलोचनात्मक विवेचन करने का शायद ही प्रयास किया हो। भौगोलिक स्थितियों के कारण संसार के जिन क्षेत्रों में आमजन का जीवन यापन जितना ही कठिन था, वहाँ उपजे मज़हब उतने ही कट्टर और नृशंस हुए। आमजन को परलोक में मिल सकने वाले कल्पनातीत इंद्रिय सुखों ने उतनी ही शिद्दत से आकर्षित किया। इन नेतृत्वकर्ताओं ने अपनी व्यवस्था की स्थापना के प्रयास में एक बड़ी जनसंख्या को युद्धों में या निर्मम हत्याओं के माध्यम से समाप्त कर दिया। अनुयायियों के माध्यम से नेतृत्वकर्ता वे सभी सुख इसी लोक में भोगते रहे और भोग रहे हैं।
हमारे समय का सबसे प्रभावी मज़हब उदारतावाद है, जो व्यक्तियों की व्यक्तिनिष्ठ अनुभूतियों का अनुमोदन करता है। उदारवादी कला यह घोषणा करती है कि सौंदर्य देखने वाले की निगाह में होता है। रूसो ने इस दृष्टिकोण को सबसे उत्कृष्ट ढंग से बयान किया है: “जिसे मैं शुभ समझता हूं-वही शुभ है। जिसे मैं अशुभ समझता हूं-वही अशुभ है।“ यह दृष्टिकोण उदारवाद की ही विशेषता है।
बीच में एक और घटक है- अर्थवत्ता का। यह सुख का एक महत्वपूर्ण संज्ञानात्मक और नैतिक घटक है। जैसा कि नीत्शे कहते हैं “अगर आपके पास जीने का एक कारण मौजूद है तो आप किसी भी तरह के ढंग को सह सकते हैं।“ एक अर्थपूर्ण जीवन मुसीबतों के बीच भी अत्यंत संतोषजनक हो सकता है, जबकि एक अर्थहीन जीवन भयानक अग्निपरीक्षा होता है, भले ही वह कितना ही आरामदायक क्यों ना हो।“
अब चलते हैं विकास यात्रा के अंतिम पड़ाव आनंदित होने की ओर। यह व स्थिति है जब मनुष्य का मन स्थिर हो जाता है। अर्थात विपरीत या संकट की स्थितियों में भी व्यक्ति सुखी और आनंदित ही अनुभव करता है। लेकिन यह स्थिति तो उच्चस्तरीय साधक के विषय में ही सुनने में आती है।
बौद्ध धर्म ने इस प्रश्न को जितना महत्व दिया है, उतना शायद और किसी मज़हब में नहीं दिया। बुध धर्म के अनुसार समस्या यह है कि हमारी अनुभूतियां क्षणभंगुर तरंगों से ज्यादा कुछ नहीं है। इस तरह के क्षणभंगुर पुरस्कारों को हासिल करने का क्या महत्व है? दुख की असली जड़ क्षणभंगुर अनुभूतियों की अंतहीन और निरर्थक तलाश है, जिसकी वजह से हम निरंतर तनाव, बेचैनी और असंतोष की अवस्था में बने रहते हैं।
दुख से लोगों को मुक्ति तब मिलती है, जब वे अपनी तमाम अनुभूतियों की अनित्य या अस्थाई प्रकृति को समझ लेते हैं और उनकी लालसा करना बंद कर देते हैं। जब यह तलाश रुक जाती है तो मन अत्यंत तनाव-रहित, स्वच्छ और संतुष्ट हो जाता है। व्यक्ति वर्तमान क्षण में रहना शुरू कर देता है।
बुद्ध के विचार में आनंद बाहरी परिस्थितियों से स्वाधीन होता है। लेकिन इससे ज्यादा और गहन अंतर्दृष्टि उनकी यह थी कि सच्चा आनंद हमारी आंतरिक अनुभूतियों से भी स्वाधीन होता है। बुद्ध की सलाह न सिर्फ बाहरी परिग्रहों की खोज को बंद कर देने की थी बल्कि आंतरिक अनुभूतियों की खोज को भी बंद कर देने की थी।
सुख का मूल हमारे अपने सत्य को जानने में है-यह समझने में कि वास्तव में हम कौन हैं? क्या हैं?
समाज के स्तर पर यह मात्र आध्यात्म का विषय नहीं है। यह तो भौतिक विकास के साथ समानांतर मानसिक विकास का विषय है। इसके लिए विराट दृष्टि की आवश्यकता है।
इस सृष्टि की मूल प्रकृति में ही सहयोग, सह-अस्तित्व एवं सहभागिता के सिद्धांत हैं। सामाजिक जीवन में मनुष्य को जब यह समझ में आएगा कि वह इस सृष्टि की हर वस्तु से जीव-निर्जीव से पूर्ण रुप से जुड़ा हुआ है और केवल जुड़ा हुआ ही नहीं है, वह शेष सभी पर निर्भर भी है। नागार्जुन के इस दर्शन को समझकर यदि समाज जीवन में व्यापक रूप से क्रियान्वित किया जाता है तो न केवल धन-संपदा अधिक से कम की ओर गतिमान होगी, बल्कि सुख और दुख भी आपस में बटेंगे। बंटा हुआ सुख कई गुना बढ़ जाता है और बटा हुआ दुख कई गुना कम हो जाता है।