मलसा (गाजीपुर)। दिव्य राधा माधव ट्रस्ट सब्बलपुर के प्रांगण में नित्य आयोजित होने वाले सत्संग में भागवताचार्य चंद्रेश महाराज ने श्रीमद्भागवत महापुराण अंतर्गत समुद्र मंथन प्रसंग सुनाते हुए कहा कि जब भगवान की प्रेरणा से देवता और दैत्य अमृत पाने की कामना से समुद्र मंथन कर रहे थे तो सर्वप्रथम हलाहल बिष निकला।
तात्पर्य यह कि कल्याण की कामना की पूर्ति हेतु किये जा रहे प्रयास के दरम्यान कभी कभी या ज्यादातर समय अकल्याणकारी वस्तुएं अथवा परिस्थितियां उत्पन्न हो जाया करती हैं। अधैर्यवान और असंयमी लोग ऐसे समय में निराश हो जाते हैं और कुछ तो प्रयास से विरत भी हो जाते हैं लेकिन संयमी और विवेकी जन बाधा के निवारणार्थ कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेते हैं।
हलाहल बिष की ज्वाला से तप्त देवता और दैत्य भगवान भोलेनाथ की स्तुति करके उनसे हलाहल बिष पान करने की प्रार्थना किये। शंकर जी ने सोचा कि सामर्थ्यवान व्यक्ति का तो कर्तव्य यही होना चाहिए कि आवश्यकता पड़ने पर दुखित दीन जन की भलाई के लिए अपने बल, धन, विद्या का प्रयोग करना चाहिए। ऐसा सोचकर भगवान शिव ने उस हलाहल बिष का पान करके समस्त संसार को उसके ताप से बचा लिया।