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कण्डुआ रोग धान की फसलों को कर रहा है बर्बाद, जानें क्या है इनके लक्षण और बचाव के उपाय

गाजीपुर । जिला कृषि रक्षा अधिकारी ने बताया है कि वर्तमान समय में छिटपुट वर्षा होने से कण्डुआ रोग धान की फसलों में मुख्यतः लग जाता हैं, यह फफॅूद जनित रोग है, इस रोग का प्राथमिक स्त्रोत मृदा है तथा वैकल्पिक स्त्रोत बीज है। इस रोग के लक्षण बालियॉ निकलने के पश्चात ही दिखाई पड़ते है। पौधों में संक्रमण पुष्पावस्था में होता है तथा इसके स्पोर हवा द्वारा फैलते है। इस रोग में बाली के दाने पीले और काले रंग के स्पोरबॉल से ढक जाते है, जिनको हाथ से छूने पर हाथ में पीले, काले अथवा हरे रंग के पाउडर जैसे रोग के स्पोर लग जाते है। प्रायः इस रोग के लक्षण बाली के कुछ ही दानों पर दिखाई पड़ते है। यह रोग छिटपुट वर्षा हाने एवं साथ ही अत्यधिक नाइट्रोजन युक्त उर्वरकों का प्रयोग इस रोग के फैलाव में सहायक है। पुष्पावस्था के दौरान हवाओं के चलने से इस रोग के स्पोर का फैलाव तेजी से होता है। कृषक भाई मिथ्या कण्डुआ रोग से बचाव के लिए 150 कि0ग्रा0 नीम की खली प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना लाभकारी होता है। खेत की मेड़ो और सिंचाई की नालियों को खरपतवारों से मुक्त रखें, ताकि रोग के कारक को आश्रय न मिल सके। कृषक भाई यूरिया का संतुलित एवं खण्डों में प्रयोग करें एवं फसलों की निगरानी करते रहे। पुष्पावस्था में स्यूडोमोनास फ्लोरिसेंस 5 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से 15-20 दिन के अन्तराल पर सुरक्षात्मक छिड़काव करना चाहिए। खडी फसल में रोग के लक्षण दिखाई देने पर कॉपर हाईड्राक्साइड 53.08 प्रतिशत, डी०एफ० 1.5 कि०ग्रा० अथवा कॉपर हाईड्राक्साइड 77 प्रतिशत डब्लू०पी० 2 कि०ग्रा० अथवा फ्लूपाइरम 17.7 प्रतिशत टैबूकोनाजोन 17.7 प्रतिशत एस0सी0 550 ग्राम अथवा पिकाक्सीस्ट्राबिन 7.05 प्रतिशत प्रोपीकोनाजोल11.7 प्रतिशत एस0सी 1 लीटर अथवा टेबूकोनाजोन 50 प्रतिशत ट्राईफ्लाक्सीस्ट्राबिन डब्लू०जी 350 से 400 ग्राम मात्रा 500 से 600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर की छिड़काव करना चाहिए।